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Showing posts from November, 2017

ये तुम्हारी मासूमियत है या ऐसे ही दिलो से खेलती हो तुम...!

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#5 ये तुम्हारी मासूमियत है या ऐसे ही दिलो से खेलती हो तुम...! मेरे एक सवाल पर तुम जो पूरा पैराग्राफ केह जाती हो । मेरे जरा से विषाद पर जो तुम दुनिया सर पर उठा लेती हो । ये तुम्हारी मासूमियत है या ऐसे ही दिलो से खेलती हो तुम...! मैं जो यूँ मुस्कुराता हूँ तुम्हे इसका कारण बताता हूँ । तुम जो ये खिलखिलाती हो, मुझे इसका कारण बताती हो। ये तुम्हारी मासूमियत है या ऐसे ही दिलो से खेलती हो तुम...! हम जब साथ चलते हैं, बिन कुछ कहे बाते करते हैं। तुम कहती हो, कि इसीलिए तो तुम्हे पसंद हूँ मैं। ये तुम्हारी मासूमियत है या ऐसे ही दिलो से खेलती हो तुम...! पहले तो तुम, अपनी परेशानियों को मेरे साथ बांटती हो। फिर मैं जो उन्हें अपनाऊ, तो मुझे रोकती हो। ये तुम्हारी मासूमियत है या ऐसे ही दिलो से खेलती हो तुम...! ये जो तुम दुनिया वालो से छुपती हो, मुझे शक है कि तुम डरती हो। और कभी तो अपनी आवाज सुनाने के लिए मुझसे कारण पूछती हो। ये तुम्हारी मासूमियत है या ऐसे ही दिलो से खेलती हो तुम...! - ✍ ✍ आदित्य ठाकुर ✍

कहा हो प्रिय?

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#4 कहा हो प्रिय? मित्र है, प्रेम है, प्रसंग भी है। कुछ दूर है कुछ संग भी है। पर दिल पूछ्ता है.. तुम कहा हो प्रिय! दास है, ख़ास है, सब आस पास है। कुछ जीवित है, कुछ लाश है। पर दिल पूछ्ता है.. तुम कहा हो प्रिय! समस्या है, निकट है, विकट है। आक्रोश है, पर बनावट है। तब दिल पूछ्ता है.. तुम कहा हो प्रिय! अश्रु है, आदर है, ग्लानि है। समझने से भी हानि है। पर दिल पूछ्ता है.. तुम कहा हो प्रिय! प्रतिज्ञा है, आज्ञा है, भक्ति है। तेरी उपस्थिती से सशक्ति है। तभी तो दिल पूछ्ता है.. तुम कहा हो प्रिय! ✍ ✍ आदित्य ठाकुर ✍

ख्वाहिश-बंदिश

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#3 दरअसल तुम्हे चाहने की ख्वाहिश बहुत है, पर मेरे आगे बंदिश बहुत है। मैं भले तेरा नहीं, तेरी याद, मेरे दिल में सही। तुम्हे पाने की चाहत नहीं, मेरी शराफत हकीकत सही। तुम गुलाब की पंखुड़ी नहीं, कांटो में लिपटा प्यार सही। तेरे लिए मेरी त्याग यही, तेरे ह्रदय की आग सही। कहता हूं तुझसे, शुकुन हो तुम, मानो मेरी बात, जूनून हो तुम। परवाह किसकी और क्यूँ करू मैं, जान के लिए, जान ले लू मैं। दरअसल तुम्हे चाहने की ख्वाहिश बहुत है, पर मेरे आगे बंदिश बहुत है। ✍ ✍ आदित्य ठाकुर ✍ ✍

तुम्हारी याद है।

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#2 मेरी अधूरी कहानियों में, मेरी सभी नादानियों में तुम्हारी याद है। मेरी पुस्तकों के पृष्ठचिन्हों में, मेरी कॉपी के आखिरी पन्नो में तुम्हारी याद है। मेरी हर करवटों में, मेरे दरवाजे की आहटों में तुम्हारी याद है। फेसबुक के तस्वीरों में , उनपे लिखे शीर्षकों में तुम्हारी याद है। वर्ग के डेस्क के चित्रकारी में , साथ न बैठ पाने की लाचारी में तुम्हारी याद है। मेरी आलमारी के सजावटों में, मेरे बिस्तर के सिलवटों में तुम्हारी याद है। मेरी नापसन्दगी के बदलने में, मेरी पसंदगी के सुधरने में तुम्हारी याद है। मेरे अनकहे अर्ज़ में, मुझे रोकने वाले हर हर्ज़ में तुम्हारी याद है। मेरे मर्ज़ के सुधरने में, मेरे क़र्ज़ के उतरने में तुम्हारी याद है। मेरी रचनाओं के मुक्तकों में, मेरे लफ़्ज़ों के रावानियों में तुम्हारी याद है। मेरे चिन्हों के सुधरने में, मेरे अंदाज़ों के बदलने में तुम्हारी याद है। मेरे अहं के जाने में, इस व्यंग के आने में तुम्हारी याद है। मेरे आँखों से निकले स्याही में, उसे समझने की कश्मकश में तुम्हारी याद है। मेरी जिंदगी के फैसलों में, मेरे बढ़े हुए हौसलो में तुम्हारी या...

तुम याद आती हो !

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#1 तुम याद आती हो... हवा की लहरें जब इस बसंत के मौसम में मेरे होठो को सुखाकर चली जाती है... तुम याद आती हो। जब मेरी परछाइयाँ, अँधेरा देख मेरे साथ खेलने लगती है... तुम याद आती हो। जब मेरा अकेलापन तुम्हारी तस्वीरों के साथ साझा होता है... तुम याद आती हो। जब मेरे रातो की नींद मुझे हर सपने में तुमसे मिलवाती है... तुम याद आती हो। जब मेरी कलम, पहली लफ्ज़ कागज़ पे उतारने जाती है... तुम याद आती हो। जब मैं अपने पुस्तको को समेट के बस्ते में सतह लगाता हूँ... तुम याद आती हो। मेरी हर मुस्कराहट पे जब लोग पूछते है... की क्या बात है.. तुम याद आती हो। ✍ ✍ आदित्य ठाकुर ✍